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बच्चों में भाषा कौशल का विकास कैसे होता है ?

भाषा विकास मे सुनना और बोलना की भूमिका

बच्चों के भाषा विकास में सुनने और बोलने की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। मानव समाज की उन्नति का आधार है भाषा मनुष्य भाषा रूपी साधन के द्वारा अपने अन्तर के भावों और विचारों को प्रकट करता है। तथा दूसरों  भावों एवं विचारों को ग्रहण करता है। भाषा का हमारे जीवन से अटूट सम्बन्ध है। 

सुनना - भाषा विकास में सुनना की भूमिका बेहद निराली है। जीवन के प्रारम्भिक काल में शिशु माँ की ध्वनियों को सुनकर ही तरह - तरह की बातों को ग्रहण करता है। अनुकरण बालकों की एक स्वाभाविक प्रवृति है। इस प्रवृति का पूरा उपयोग सुनने में किया जा सकता है। 

बच्चों के समक्ष शुद्ध संतुलित शब्दोच्चारण किया जाय तो शिशु उसे सुनकर भाषा ज्ञान प्राप्त कर सकता है। परिवार के अतरिक्त आस पास पड़ोस में रहने वाले मित्र से सुनकर किसी घटना को बड़ी ही आसानी से ग्रहण कर लेते है। सुनना किसी भाषा को सिखने का प्रथम चरण है। सुनना एक साधन है जो किसी भाषा को सिखने में सर्बाधिक अपनाया जाना चाहिए। भाषा शिक्षण के समय अध्यापक को चाहिए कि वे उन्हें सुनने की लिए प्रोत्साहित करें 
सुनना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है 

शब्दोच्चारण 
शब्दों वाक्याशों उपवाक्यों के प्रयोग 
उच्चारण सम्बन्धी अशुद्धियों को दूर  करने में 
दुसरो के भावो विचारों और अनुभवों को ग्रान करने में 
शब्द भण्डार की वृद्धि में 

सुनने के सन्दर्भ में 
१. कहानियों ,लोक कथाओं ,चुटकुलों तथा को ध्यानपूर्वक सुनना 
२.कविता ,गीत ,लोकगीत ,राष्टगीत आदि को शुद्ध एवं स्पष्ट उच्चारण अनुभव करते हुए सुनना 
३. गद्य या पद्य के पाठों एवं प्रकरणों को ध्यानपूर्ण शिष्टाचार के साथ सुनना तथा सुनी हुई विषयवस्तु में निहित विचारों एवं भावों को समझना 
४. बोलने बाले की कथन शैली के अनुसार भावों को सुनकर समझना और कहानी संवाद ,नाटक आदि को सुनकर आनंद प्राप्त करना 


बोलना 
यह मौखिक भाव प्रकाशन का एक महत्वपूर्ण चरण है। संप्रेषक के माध्यम के रूप में मौखिक ढंग से भाषा का व्यवहार मानव की अपनी विशेषता है। बालक जब जन्म लेता है तो उसे भूख प्यास और दुःख की अनुभूति होती है फलस्वरूप वह विलाप करता है। यहीं से शुरू होती है भावाभिव्यक्ति प्रारम्भ में यह निरर्थक ध्वनियाँ निकलने लगता है फिर यही निरर्थक ध्वनियाँ शुद्धिकरण की दिशा में बढ़ती है।

 और शिशु तीती फूटी भाषा में अपने भावों रुचियों और आवश्यकताओं का प्रकटीकरण करना सिखने लगता है भाषा विकास में बोलना  महत्वपूर्ण भूमिका है। बोलने का भी जीवन से घनिष्ठ सम्बन्ध है। मातृभाषा की सीख वह अपनी माता से प्राप्त करता है माँ की भूमिका बालक की बोलचाल के विकास के लिए पुनर्बलन का कार्य करती है। 
बोलना एक कला है अतः उसे सीखने के लिए बोलने का अभ्यास आवश्यक है।

 बोलने से बालक की झिझक समाप्त होती है उसकी उच्चारित शब्दावली और वाक्यों के प्रयोग के क्रम का पता आसानी से चल पाता है। इस प्रकार उसकी अशुद्धियो को आसानी से शुद्ध अभ्यास के जरिये दूर किया जा  सकता है। अध्यापक को चाहिए कि वे भाषा शिक्षण के समय बालकों बोलने का पर्याप्त अवसर दें। प्रारम्भ में तो बालकों की अशुद्धियों की ओर ध्यान न देकर उन्हें एक प्रवाह ले एवं हावभाव के साथ आत्मप्रकाशन के प्रेरित एवं प्रोत्साहित करना चाहिए।

 जब बोलने की उसकी झिझक समाप्त हो जाएगी तो अभ्यास के जरिए शुद्धता धीरे धीरे स्वतः आने लगती है। माता पिता एवं अध्यापकों  को भी बालकों के सम्मुख उत्तम  बोलने का आदर्श प्रस्तुत करना चाहिए ताकि बालक उनका अनुसरण करते हुए शुद्ध एवं संतुलित वाचन करना सीख सके। यह भी आवश्यक ही कि जब बालक बोल रहे हो तो उनकी अशुद्धियों की नजरअंदाज न करें। बल्कि उनकी अशुद्धियों को उनके संज्ञान में लाए और उन्हें का प्रयास करें। 

बोलने के संदर्भ में 

१. सुनी गई कहानियों को अपनी भाषा कहना 
२. घर कक्षा या किसी समारोह में अपने भावों को बोल कर प्रकट करना 
३. अपने गले की शुद्धता को अपने आप सुधारना 
४. शिष्टाचार सम्बन्धी शब्दों का प्रयोग करते हुए मानक भाषा में शुद्ध एवं उतार चढाव के साथ विचार व्यक्त करना


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